(+91) 9211 546 090
(+91) 9315 490 642
img
महात्मा बुद्ध

Share:  

बारह साल बाद जब गौतम बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद घर वापस लौटे। जिस दिन उन्होंने घर छोड़ा था, तब उनका बेटा राहुल एक दिन का था। जब वापस आए तो वह 12 वर्ष का हो चुका था। और महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा बहुत नाराज थी| उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल पूछा कि मैं आपसे पूछती हूं कि जो आपने जंगल में जाकर जो पाया, क्या वह यहीं नहीं मिल सकता था? यह महात्मा बुद्ध कैसे कहें कि यहीं नहीं मिल सकता था। क्योंकि सत्य तो सभी जगह है। अब तो उन्होंने खुद सत्य को जान लिया है| ऐसा कैसे कह दे की यहां नहीं है। वह तो सब जगह है। पर सत्य के मिल जाने के बाद तो फिर उसी संसार और बाजार में आना पडा तब जाना कि उस सत्य को यहां भी जाना जा सकता था। भगवान बुद्ध के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था उन्होंने आंखे झुका ली|यशोदा ने एक और प्रश्न कर चोट की, उन्होंने राहुल को सामने किया और कहा कि ये तेरे पिता है। इनसे तू अपनी वसीयत मांग ले। इनके पास तेरे लिए देने के लिए क्या है? वह मांग ले। यह बड़ी गहरी चोट थी। बुद्ध के पास देने को था ही क्या। महात्मा बुद्ध जो इतनी देर से शांत बैठे थे उनके चेहरे पर मुस्कराहट आई, महात्मा बुद्ध ने उसी समय अपना भिक्षा पात्र राहुल के हाथ में दे दिया, भगवान ने कहा, बेटा मेरे पास देने को कुछ और है भी नहीं, लेकिन जो मैंने पाया है वह तुझे दूँगा। जिस के लिए मैने घरबार छोड़ा तुझे, तेरी मां और इस राज पाट को छोडा| आज मुझे वो मिल गया है। मैं खुद चाहूंगा वही मेरे प्रिय पुत्र को भी मिल जाये। बाकी जो दिया जा सकता है। क्षणिक है। देने से पहले ही हाथ से फिसल जाता हे। मैं तो तुझे ऐसे रंग में रंग देना चाहता हूं जो कभी नहीं छुट सकता। तू संन्यीस्त हो जा। बारह वर्ष के बेटे को संन्यिस्त कर दिया। यशोधरा की आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। बुद्ध ने कहा जो मरी सम्पदा है वही तो दे सकता हूं। समाधि मेरी संपदा है, और बांटने का ढंग संन्यारस है। आया ही इसलिए हूं कि तुझे भी ले जाऊँ। जिस सम्पदा का मैं मालिक हुआ हूं। उसकी तूँ भी मालिक हो जा। और सच में ही यशोधरा ने सिद्ध कर दिया कि वह क्षत्राणी थी। उसी समय पैरों में झुक गई और उसने कहा, मुझे भी दीक्षा दें। और दीक्षा लेकर भिक्षुओं में, संन्यासियों में यूं खो गई कि फिर उसका कोई उल्लेख नहीं मिला। पूरे धम्म पद में कोई उल्लेख नहीं आता। हजारों संन्यासियों कि भीड़ में अपने को यूँ मिटा दिया। जैसे वो है ही नहीं। लोग उसके त्याग को नहीं समझ सकते।

||ओम आनंदम||